माफ़िया घूमते हैं बम लेकर
और हम जेब में क़लम लेकर
जी रहे हैं ग़रीब ग़म लेकर
और वो घूस की रक़म लेकर
घर का बाज़ार का सियासत का
बोझ सारा चले हैं हम लेकर
जिससे साहित्य का अनादर हो
क्या करेंगे लकब वो हम लेकर
लोग दुनिया सँवारने निकले
उनकी ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-खम लेकर
वो पढ़ाते हैं काव्य के प्रतिमान
चार-छह पैग ओल्ड-रम लेकर
नौकरी या कि काव्य कुल मसनद
सब दिलाते हैं वो रक़म लेकर
आज साहित्य के पराभव को
देखता हूँ मैं आँख नम लेकर
इस गृहस्थी की बैलगाड़ी को
खींचता जा रहा हूँ दम लेकर
झूठ को सच बना रहे 'रौशन'
जज भी इंसाफ़ की क़सम लेकर