मार रही है
लोकवेद को
भद्रजनों की अदाकारियाँ,
ओछी बिछा बिसात
बिखेरी
अधकचरी कुछ जानकारियाँ।
हमको रखा निरक्षर, लेकिन इनसे स्वार्थ-
उपनिषद बाँचे।
ढलते रहे स्वर्णकलशों से
हमको रखा बनाकर साँचे।
मूड़ काटते मोरध्वज सी
राजे-रानी चला आरियाँ। मार रही है।।।।
विधिसम्मत ये कोढ़ दे रहे,
परम्परागत दाद-खाज में।
पिछड़ों की क्या बात करें हम-
संविधान सम्मत सुराज में?
इनके बीज
कहाँ तक धारें
सिलिया जैसी अवश नारियाँ। मार रही हैं।।।
शबरी औ शम्बूक हजारों,
जीवनरेखा से नीचे हैं।
सरसुतिया,
दुरगी, लछमी की
ये चोली अँगिया खींचे हैं।
फाँस रखा
पीढ़ी दर पीढ़ी
फैलाकर फर्जी उधारियाँ।
मार रही हैं लोकवेद को।