मुर्गा नहीं बोला
चिड़ियाँ नहीं चहकीं
सूरज नहीं डोला
सुबह के धूमिल उजियारे में
चल पड़ी है चन्द्रो
हाथ में टोकरा झाडू लिए
पीछे रह गये
मासूम पिंकी, बबली, छोटू
सो रहे हैं एक-दूसरे से लिपट
तीनों जब उठेंगे
माँ को ना पाकर
रोयेंगे, लड़ेंगे
कटोरदान में बची बासी रोटी ढूढ़ेंगे
चन्द्रो करेगी गलियाँ झाडू से साफ
बहायेगी बदबूदार पेशाब
उठायेगी टोकरी भर-भर गूँ
फिर फेंकने जायेगी कहीं दूर...
लौटकर पसीने से लथ पथ
करेगी नल के नीचे
हाथ मुँह साफ
तब मिलेगी कहीं टूटे-फूटे कप में
चाय और सूखी ब्रेड
चन्द्रो आयेगी फिर घर
बगल में दबाये झाडू- टोकरा
जहाँ उसके नन्हें मासूम भूख से लड़ते
रोते-बिलबिलाते, मैले-कुचैले से
गठरी बन सोते मिलेंगे