Last modified on 5 नवम्बर 2009, at 12:04

मिट्टी का कलश / अरविन्द अवस्थी

विवाह के मंडप में
दिये के साथ
स्थापित कलश
क्या-क्या नहीं सहा
उसने वहाँ पहुँचने के लिए
बार-बार रौंदा गया
कुम्हार की थाप और
धूप सहकर भी
उसे पकने के लिए
जाना पड़ा है अग्नि-भट्ठी में
उतरना पड़ा है खरा
हर कसौटी पर
रंग जाना पड़ा है
चित्रकार की तूलिका से
तभी तो मिट्टी का कलश
बन गया है मूल्यवान
तपकर, सजकर
सोने के कलश-सा ।