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मितवा/ हरीश भादानी

कल से क्या
आज से गवाही ले मितवा
घाटी में आंगन है
आंगन में बांहें
बांहती दहरिया की
कल से क्या
आज से गवाही ले मितवा
आंखों में झीलें हैं
झीलों में रंग
रंगवती हलचल की
कल से क्या
आज से गवाही ले मितवा
माटी में सांसें हैं
सांसों के होठ
बोलती पखावज की
कल से क्या
आज से गवाही ले मितवा
दूरी पर चौराहे
चौराहे खुभते हैं
चरवाहे पांवों की
कल से क्या
आज से गवाही ले मितवा
रात एक पाटी है
पहर-पहर लिखता है
उजलती हक़ीक़त की
कल से क्या
आज से गवाही ले मितवा
घाटी में आंगन है, आंगन में बाहें