तुम्हारा मित्र है
तुम्हारी अकांझाये
समुत्रित है तुम्हारा
कृषि झेत्र, जिसे तुम
बोते हो, स्नेह से
और काटते हो
फसल कृतघ्नता से
क्योकि नि: शब्द उपजते
और बोते जाते है सारे विचार
समस्त अभिलाषाएँ,
सारी अपेझाये
उस आनन्द के साथ
जिसमे नहीं होता
कोई जय घोष॥
लेकिन कितना हम
अमल कर रहे है
कही यही सच तो
नही, की हम मित्रता
का बीज बोने का
वक्त ही नहीं तलाश
पा रहे है। दोस्ती की
खेती खुशीयो की
फसल लेकर आती है
लेकिन उसके लिए
परस्परिक विशवास
की जमीन और अपनत्व
की उष्णता के बीज भी
तो पास होना चाहिए॥