चलू लेखनी आहि भूमिमे
जतय छला राजर्षि विदेह
होइत सदेह विदेह कहौलनि
कमँयोगसँ राखि सिनेह
गीतामे भगवान कृष्णकेँ
लेबऽ पड़लनि जनिकर नाम
जनिक पुण्यबल जगत विदित
युगयुगसँ अछि ई मिथिला धाम
जतय धरित्री पुत्री पौलनि
पतिव्रता सीताक समान
तकनहु भेटि सकय नहि जनिकर
त्रिभुवनमे दोसर उपमान
ब्रह्मज्ञानी याज्ञवल्क्य ऋषि
लेल हजारो गाय हँकाय
भरल सभामे तकिते रहला
समुपस्थित पण्डित समुदाय
स्वयं शंकराचार्य जतय
भारती संग कयलनि शास्त्रार्थ
भेल अनन्वय उपमाऽलंकारो
जनिका लगमे चरितार्थ
मण्डन-प्रिया-मण्डिता मिथिला-
सन दोसर नहि हो अनुमान
शंकर सन शंकरे तथा
भारती सदृश नहि विदुषी आन
यथा दिवसपतिकेँ उगबामे
दिशाकेर बन्धन न रहैछ
उदित होथि रवि जाहि दिशामे
सैह दिशा प्राची कहबैछ
तहिना सुपथ विपथ हो अथवा
जाही पथ पर राखी डेग
सैह मार्ग सन्मार्ग बूझि
जग केँ चलबा केर हो उदूवेग
जाहि ठाम उदयन समुदित भय
गौरवोक्ति कयलनि उद्घोष
जनमि अयाची सिद्ध कयल
‘थिक सर्वश्रेष्ठ विभव सन्तोष’
साग खाय रहला जीवन भरि,
किन्तु न दान कयल स्वीकार
‘हम बालक, वाणी नहि बाला’
जनिके पुत्रक थिक उद्गार
जाहि ठाम गौतमक तर्क लग
रामचन्द्र बनलाह अवाक्
साहस के करताह ताहि ठाँ
शास्त्र विषय चर्चा करबाक
जकर कण्ठसँ निःसृत वाणी
धारण कयलक मन्त्रक रूप
बुध धीरेन्द्र रोकि रथ रविहुक
उदाहरण दय देल अनूप
प्राणक आहुति देल, कयल नहि
पराधीनता अंगीकार
नृप हरसिंहदेव केर गौरव
अछि सुविदित सगरे संसार
मातृभूमि रक्षाहित जीवन-
दानी जत शिवसिंह नृपाल
अक्षय यश अर्जन कय गेला
जकरा खाय सकय नहि काल
जनिक सखा मैथिल-कवि-कोकिल
भाषा काव्य-कुंजमे कूकि
प्राण-प्राणमे जीवन-दर्शन-
केर चेतना देलनि फूकि
विद्वत्ता-बल अर्जन कयलनि
मिथिला राज्यक जतय महेश
सजल सफल सभ ऋतुमे रहइत
अछि शस्येँ श्यामला जे देश
वाग्वतीक धारासँ सिंचित
कण्ठ-कण्ठ वाग्धारा स्रोत
कमला-जल-सिंचित कमलक वन
मधुपक दलसँ रहय इरोत
तटबन्धक बन्धनमे जकड़लि
कोसी जतय बहथि उत्फाल
गाबि नचारी, हर हर बम् बम्
कह, शिवभक्त बजाबथि गाल
एखनहुँ रहि आसक्ति-विरत
कत शक्तिक पूजनमे तल्लीन
रहथि तन्त्र-साधनमे लागल
अनुखन सिद्धासन आसीन
ठाम-ठाम उद्यान रसालक
कदलीवन प्रति गृहक समीप
गाम-गाम डिहवार थान तर
जरइत रहइछ सन्ध्या दीप
मन्दिर-मन्दिरमे घण्टा ध्वनिसँ
दिङ्मण्डल ध्वनित रहैछ
नित आनक उपकार करक हित
लोक जतय सभ कष्ट सहैछ
आङन-आङनमे पवित्र
नीपल चौरापर तुलसी गाछ
यात्रामे शुभदायक मानल
जाइछ भरल कलश ओ माछ
जतय स्वभावहिसँ होइत छथि
परम विनोदी पण्डित लोक
विद्यादान निरत रहि सन्तत
जीवन यापन करथि कतोक
चलू लेखनी ओहि भूमिकेँ पुनि पुनि आइ नमाबी माथ
अहँक ठोर आ हमर कण्ठ दूनू संगहि भय जाय सनाथ