चौदह फ़रवरी की शाम को,
यूँ ही पहुँच गया था मैं सब्ज़ी मंडी ।
कहा करती थीं तुम, ‘तीता अच्छा नहीं लगता।’
पर जाने क्यों,
मन को ही कड़वा कर लेने तक करेले बीनती रहीं ।
तीखा खा न सकने वाला मैं,
आँख जलने तक मिर्चियों को मसलता रहा ।
चौदह फ़रवरी की रात को
किसी भी तरह सो न सका मैं ।
कैसे जानूँ अब कि,
तुम
सोईं या सो न पाईं ।