हे माँ गंगे
अंगप्रदेश से निकलते ही
तुम्हारी धारा
दो भागों में विभाजित
हो जाती है
जैसे तुमने
अपनी दो बाहुओं को
सामने फैला दी हो ।
किससे गले मिलने के लिए
किससे गले लिपट कर
अपनी सारी खुशी
अपनी सारी व्यथा
समर्पित कर देने के लिए ।
हाँ पश्चिम बंगाल का मुर्शीदाबाद
मुर्शिदाबाद का
नदिया ग्राम
यही तो वह जगह है
जहाँ से तुम बँट जाती हो, माँ
दो भागों में
और जगत में
प्रसिद्ध हो जाती
किसी के लिए, पद्मा
किसी के लिए, भागीरथी
लेकिन क्या अन्तर पड़ता है
कोई किसी नाम सें तुम्हें पुकारे
तुम हो तो सबके लिए
पतितपावनी गंगा
मोक्षदायिनी गंगा
पापविनासिनी गंगा
जगततारिणी गंगा
चाहे तुम्हारी धार
बंगलादेश की भूमि को
पवित्रा करे
या फिर बंगाल की चैतन्य भूमि को ।
क्या फर्क पड़ता है
कि हुगली तक आते-आते
तुम हुगली नदी ही
बन जाती हो
लेकिन तुम्हारी धाराओं में
लहरों में
जिस भगीरथ की कथा
लिखी हुई है,
वह शेष कहाँ होती है,
तुम आखिर तक
भागीरथी ही बनी रहती हो ।
यह कहानी
आज की नहीं है,
आज से तीन-चार करोड़ वर्ष
पहले की कथा है
जब हिमालय ने
अपना आकार लिया था
और तुम उतर पड़ी थी
उस हिमालय से ही
भारत की पुण्यभूमि पर
और तब से ही
बही जा रही हो
निरन्तर
अविरल गति से ।
हे माँ भागीरथी
हावड़ा होते हुए
जब तुम
सुन्दरवन में
विश्राम करने पहुँचती हो
तब महासागर
कितने स्नेह से
तुम्हारी ओर देखता रहता है ।
सुन्दरवन तक आते-आते
कितनी-कितनी वनस्पतियाँ
हर्ष से
पुलकित होती रहती हैं ।
तुम्हारी विजय की कथा
उसी सुन्दरवन में
गरज-गरज कर कहते हैं
शक्ति के सूर्य, अनगिनत शेर ।
कभी ये ही शेर
राजमहल के जंगलों में
गरजते थे
जब सागर
बंगाल के सुन्दरवन के निकट नहीं
राजमहल के पास होता था
और अंगदेश का मन्दार
सागर के बीच
शिवलिंग की तरह
शोभता था कल्प बीते ।
सदियाँ बीतीं
समय बीता
माँ गंगे,
तुम्हारे साथ आई
पर्वत के कण
नदियों की मिट्टियाँ
जमती गयीं
और समुद्र एक दिन
सुन्दरवन तक पहुँच गया
जहाँ अब भी
मिट्टियाँ जम रही हैं
और सागर
दूर होता जा रहा है
डेल्टा की उठती भूमि के
कारण ही
तुम्हारी धार
यहाँ कितनी धीमी हो जाती है
क्या
यहाँ तक आते-आते
सचमुच ही
थक जाती हो तुम ?
लेकिन सागर से
मिलने की तुम्हारी चाह को
कहाँ रोक पाती है
डेल्टा की उठती हुई भूमि ।
तुम अपने को
दो धाराओं में नहीं
कई-कई धाराओं में
बदल लेती हो ।
यहाँ
तुम्हें
इतनी-इतनी धाराओं में
विभाजित देखकर
मुझे यही लगता है
कि वे तमाम नदियाँ
महानदियाँ
यमुना,
रामगंगा,
करजली,
सोन,
गंडक,
कोशी,
बाँसलोई,
मयूराक्षी,
चानन,
जो तुममें मिल कर
एक हो गयी थीं
यहाँ तक आते-आते
तुमसे अलग हो रही हों
शायद यह बताने के लिए कि
गंगा की शक्ति पा कर ही
मैं सागर के
किनारे तक पहुँच पाई हूँ
नहीं, तो न जाने
कहाँ
किस पर्वत में
किस रेगिस्तान ने
किस जंगल ने
हमें सोख लिया होता ।
हे गंगे
इतनी-इतनी धाराओं के साथ
तुम यहाँ
ऐसी ही लगती हो
जैसे देवी दुर्गा के
कई-कई हाथ
एक साथ
हवाओं में तैर रहे हों ।
हे माँ गंगे
तुम भगवती ही तो हो
तुम सिर्फ
धरती पर
स्वर्ग की महानदी ही
नहीं हो ।
तुम जीवनदायिनी हो
तुम्हारे ही कारण
नगरों-महानगरों के
सीने पर,
कंधों पर,
बाँहों पर,
हथेलियों पर,
सजते हैं तीर्थ प्रदेश
महापर्व के उत्सव ।
लेकिन
क्या कारण है कि
तुम्हारे चेहरे पर
पावस का इन्द्रधनुष नहीं
वर्षा की
भयभीत करने वाली
बिजलियाँ कड़कती हैं ।
कहीं इसलिए तो नहीं
कि तुम्हारी
कंचन काया पर
दूषित जल का तेजाब
छिड़क रहा है ।
वह भी
एक-दो मन नहीं
लगभग तीन करोड़ लीटर प्रदूषित जल
वह भी प्रतिदिन ।
लोगों को नहीं मालूम
कि इस अपराध का
जो दण्ड होगा
उससे तो किसी तरह भी
नहीं बचा जा सकता ।
एक भी मीन नहीं बचेगा
किसी नवीन सृष्टि के लिए
एक-एक कर मर रही हैं
मीन की सारी प्रजातियाँ
घड़ियाल मर रहे
डाॅलफिनों के प्राण व्याकुल हैं ।
लेकिन यह आदमी है
कि चेतना ही नहीं ।
हिमालय पर
बारूद की ज्वालामुखी
फूट रही है
बर्फ का पहाड़ पिघल रहा है
कल यह भी हो सकता है
कि हिमनदी ही सूख जाय
तब तुम कहाँ होगी धरती पर
हे माँ गंगे,
कहीं ऐसा न हो कि
तुम रूठकर
फिर लौट जाओ स्वर्ग ही
और धरती के पुत्रा
शोक संतप्त सगर की तरह
विलाप करते दिखे ।
नहीं, हम जीवित हुए सगर पुत्रों को
अब मरने नहीं देंगे ।
जुलाई 2014 के संकल्प को
कोई रावण हरे
तो हरने नहीं देंगे
तुम भगीरथ की ही नहीं
भारतवर्ष के
सवा करोड़ लोगों की माँ हो ।