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मिस मारिया / सुरेन्द्र स्निग्ध

ख़ूबसूरत एक्सक्लुसिव डायरी
और शीशे के ग्लास के साथ
भागलपुर कैम्प जेल के
इस दूसरे नम्बर के कैम्पस में
अलस्सुबह
क्यों घूमते रहते हैं प्रोफ़ेसर एक्स कुमार?
कभी उनतीस नम्बर बैरक के पीछे
कभी आगे
आम गाछ की सघन छाया तले
आप क्या लिखते रहते हैं
प्रोफ़ेसर एक्स कुमार?
रात ढल जाने तक
मोमबत्ती के प्रकाश के सामने भी
अनवरत
क्यों चलती रहती है आपकी क़लम
उस कुम्हार की तरह
जो अनगढ़ कच्ची मिट्टियों से
गढ़ता रहता है
घड़े / खिलौने / और दीये !
उस चित्रकार की तरह
जो रंग और रेखाओं से
काग़ज़ के कैनवास पर
गढ़ता है शक़्लें और
आत्माभिव्यक्तियाँ !
मैंने देखा है
प्रोफ़ेसर एक्स कुमार
(क्षमा कीजिएगा
मैंने गढ़ने के वक़्त
आपकी उँगुलियों की
थिरकनें देखी हैं
देखी है

आँखों में एक अपूर्व चमक —
नवजात शिशु को देखकर
जैसी चमक
पिता की आँखों में उठती हैं)
अधजली मोमबत्ती की वर्तिका में
एक मासूम बालिका की सूरत !
(सुविधा के लिए आप
उसका कुछ भी नाम
सकते थे —
आपने
‘मिस मारिया’ नाम दिया है।)
मिस मारिया,
मैंने तुम्हें आकार ग्रहण करते हुए
अनुभव किया है
उस मोमबत्ती की वर्तिका में।
तेरह वसन्तों की बालिका मारिया
जिसने
चौदहवें वसन्त के
आगमन के साथ ही
अपने आप को
कली से फूल और
फूल से फल के रूप में
बदलते देखा है
जहाँ आम के बौरों की तरह
जवानी लद गई है
और चुपके से
‘मन’ बदल गया है
‘देह’ की शक़्ल में
मारिया,
बेटी का प्रथम शिक्षक
उसकी माँ होती है
तुम्हारी माँ ने तुम्हें

पढ़ाया था ’देह‘ का प्रथम पाठ
उसने तुम्हें सिखाया था —
“मारिया,
पुरुष-नारी को भोगने के लिए बना है
और, तुम्हारी देह
पुरुषों की देह का सिर्फ़ आहार है
इसे याद रखना।”
उर्वर भूमि में जैसे
स्वस्थ बीज फेंकता है
नुकीला अंकुर
वैसे ही
तुम्हारी माँ के प्रथम पाठ ने
तुम्हारे मन में
उगा दिए
चाहत के पौदे।
तुम्हारी देह
नये वृक्षों में उगे
कोपलों की तरह थी —
तुम्हारी देह
बनती गई थी
रंग-बिरंगे फूलों से
सजा गुलदस्ता।
तुम्हारा बाप ‘जॉन’
एक नम्बर का शराबी था
मारपीट करने के अपराध में
भुगत रहा था सज़ा
सश्रम कारावास की
भागलपुर सेण्ट्रल जेल में।
तुम्हारी माँ ‘लूसी’
अंकल ‘पिन्टो’ के साथ
(वही ‘पिन्टो‘
जिसने तुम्हारी देह की कलियों के

प्रस्फुटन के लिए
तुम्हारी देह-लता को
खुरदुरे हाथों से
बार-बार सहलाया था।)
देह का जाल बुनने
भाग गई थी कहीं
तुम्हें अकेली छोड़कर।
याद आ रहा है सब कुछ —
तुम्हारी
पटना से भागलपुर तक की
बिना टिकट रेल-यात्रा
‘क्यूल’ में चेकिंग
फिर, तुम्हारा पकड़ा जाना
और स्टेशन मास्टर द्वारा
ज़ुर्माने के रूप में
वसूल लिया जाना
तुम्हारी देह-ऊष्मा,
और, बिखर जाना
तुम्हारे यौवन का प्रथम पराग।
याद आ रहा है
भागलपुर सेण्ट्रल जेल के
अधीक्षक के पास जाकर
‘बाप से मिलने के लिए’ रोना
और फिर —
उस बूढ़ी देह की
भूख मिटाने की
तुम्हारी लाचारी।
मारिया,
सच कहता हूँ,
रोंगटे खड़े हो जाते हैं हमारे
नोचे-खसोटे जाने की
परिकल्पना करता हूँ

कल्पना करता हूँ
बेला के नए खिले फूल के
रौंदे जाने की,
मिट्टी के कच्चे दीये को
पैरों से तोड़े जाने की।
मारिया सोचो
मारिया,
उठो / सोचो ज़रा
तुम्हारी देह के अन्दर की
जो ‘मारिया’ है,
एक ख़ूबसूरत ‘फूल’
एक पवित्र ‘बालिका’
क्या वह सिर्फ़
माँ का पढ़ाया हुआ प्रथम पाठ है?
बहुत अच्छा किया तुमने
जेल अधीक्षक के जवान बेटे
राजीव के साथ
तन से ऊपर उठकर प्यार किया...
और भाग गईं राँची।
तुम क्या वहाँ भी
फिर वही खेल खेलोगी
जिसे तुमने अनचाहे ही
कई जगह खेला है?
मारिया,
मत करना ऐसा
वरना, थक जाओगी,
टूट जाओगी
और भटक जाओगी
अपने मन के अन्ध गह्वर में।
मेरी प्यारी मारिया,
मैं जानता हूँ

प्रोफ़ेसर एक्स कुमार ने
तुम्हें गढ़ने के क्रम में
नहीं झाँका है तुम्हारे मन के भीतर,
वे नहीं चाहते थे भटकना
तुम्हारे मन के
अन्धेरे मकान में
यह अन्धकार
इतना सघन है मारिया,
कि प्रोफ़ेसर एक्स कुमार की मोमबत्ती
नही कर सकती है
वहाँ प्रकाश की वर्षा ।
मैं महसूस कर रहा हूँ
तुम्हारा स्त्रष्टा बहुत दुखी है मारिया,
इसलिए इधर कई रातों से
देख रहा हूँ
वह मोमबत्ती फिर नहीं जलती,
लुढ़का पड़ा है शीशे का ग्लास
और क़लम नहीं चलती
अनवरत।
प्रोफ़ेसर कुमार
थके
और सोए
नज़र आते हैं
अन्धकार की चादर ओढ़कर।
माफ़ कीजिएगा
स्रष्टा प्रोफ़ेसर एक्स कुमार
मारिया ने दी है
आपको मानसिक तकलीफ़
सिर्फ़ ‘देह’
बहुत तकलीफ़ देती है
अगर ‘मन’ में पसरा हो
गहन अन्धकार

और बगल में रखी हो
अधजली मोमबत्ती / बिना प्रकाश की
उठो मारिया,
उठो
स्वयं जला लो मोमबत्ती
इस प्रकाश में तुम
खिल उठो उसी तरह
जिस तरह खिलते हैं चाँदनी में
बेला के फूल
और रोशनी में
नहा जाती है
‘माता मरियम !’