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मुँह-अँधेरे जागता हूँ / इवान बूनिन

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मुँह-अँधेरे जागता हूँ
खिड़की हिमकणों से ढकी है
उससे बाहर झाँकता हूँ
हिम‍अंधड़ की झड़ी है
दूर दिख रही साँवली छाया
यह इसाकोव गिरजा है
रंग सुनहरा उसका मुझे भाया
मन में अमन सिरजा है

ठंडा है, बर्फ़ीला है
सुबह का यह धुंधलका
कोहरे में जो सलीब छिपा है
धुंध में वह भी झलका
काँच से सटे हैं कबूतर
लगे उनको यह मरम है
खिड़की के क़रीब तापमान
शायद थोड़ा-सा गरम है

मेरे लिए नया है यह सब
कहवे की ख़ुशबू, फ़ानूस, रोशनी
कालीन गुदगुदा
कमरा यह आरामदेह गज़ब
और हिमझड़ी से भीगा अख़बार
मन पर छाई है एक ख़ुशी अजब

(17 जनवरी 1915, पितेरबुर्ग)

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय