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मुकम्मल कहानी / अमित कुमार अम्बष्ट 'आमिली'

हाँ, इत्तेफ़ाक़ ही था
तुमसे पहली बार मिलना,
किसी और के विवाह पर
दुल्हन-सी सजी तुम!
काफी था बस तुमको देखकर
मेरी ज़िंदगी का ठहर जाना,
पर बस इतने से तो
मुकम्मल नहीं होती कहानियाँ!
अभी तो इनका
शुरू होना भी बाकी था,
वर्षों की कोशिश के बाद
थोड़ा पास आ पाया था तुम्हारे
बस इतना! कि
चुपके से देख सकूँ तुमको,
तुमसे कुछ कहता भी कैसे?
हवाई चप्पल पहने
अतिश्याम वर्ण
एक बेरोजगार इंसान का
प्रेम करना भी तो
वाजिब नहीं होता,
तुलना होता है
कई कई कसौटियों पर,
देने पड़ते हैं
इम्तिहान दर इम्तिहान !
अभी तो मेरा
पाँव पर खड़ा होना बाकी था।
ज़िद बस इसकी नहीं थी
कि तुमको पाऊँ, कैसे?
सोचता था तुम्हें संभालूं कैसे?
प्रेम बस इतना तो नहीं था
कि बस बंधन मे बंध जाते हम!
निभाना उम्र भर संजीदगी से
ये ज्यादा ज़रूरी था!
हाँ, याद है मुझे बहुत मुश्किल से
बस इतना कह पाया था –
तुम्हारी आंखों में झांकते हुए
काश ! तुम-सी होती कोई जीवन में!
तुमने समझा था मेरे कहने का तात्पर्य!
पर निरउत्तर ही!
बस तुम्हारी मुस्कान समेटे लौटा था मैं,
इतना ही काफी था।
मेरे अपने सपनों की ओर
भरने को उड़ान
झोंक दिया था मैंने खुद को
तुमसे दूर कहीं किताबों में
कि जब भी लौटूँ तुम्हारे पास,
आंखों में आंखे डाल कह सकूँ
कि हाँ ! मुझे तुमसे मुहब्बत है ,
और हाँ, मैं लौटा एक रोज़-
लिखने अपनी अधूरी कहानी,
फिर तुममें ही खोकर
खत्म हो गया मेरा वजूद,
मैं तुम हो गया और तुम मैं
सच है, आज
अपनी कहानी मुकम्मल है !