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मुकाबला / जयप्रकाश कर्दम

भोर के होने से
दिन के ढलने तक
जहां भी जाता हूं
मेरे साथ-साथ चलता है
मेरे सिर पर लदा सूरज
अग्नि-किरणों के प्रहार से
जलाता, झुलसाता
मेरे शरीर की नमी को
सोखकर शुष्क बनाता
सो जाता है दिन भर की थकान के बाद
अंधकार की चादर ओढकर रात में
तैयार होने को अगली सुबह
बरसाने को अपनी आग का कहर
और मैं तैयार होता हूं
उसका मुकाबला करने के लिए
नए सिरे से हर रोज।