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मुक्तक-29 / रंजना वर्मा

ये भारत भूमि पावन है तभी तो है मिला योगी
न टिक पाया कोई भी सामने है उस के प्रतियोगी।
बचाने देश की संस्कृति है जो आया नमन उसको
नजर में एक हैं उस के हो मानव या कि पशु भोगी।।

न अर्पण हो न तर्पण हो
हृदय का ही समर्पण हो।
जुड़ें दो दिल सदा ऐसे
न कोई भी विकर्षण हो ।।

लो फिर आयी होली है
पिसी ठंडाई होली है।
रंगों की बरसात हुई
होली है भाई होली है।।

हुरियारों की टोली है
लिये भंग की गोली है।
रंगों की बरसात करें
होली है भाई होली है।।

यादों की कंकरी पड़ी नयन में करक गयी
आये हुरियारे द्वार किवड़िया खरक गयी।
गगरी भर ले कर रंग छिपाये है मुखड़ा
छत से रँग डारे गोरी चूनर सरक गयी।।