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मुक्तक-2 / देवेश दीक्षित 'देव'

कभी बुनियाद हिलती है,कभी घर टूट जाता है
अगर तूफ़ान आ जाये तो लंगर टूट जाता है
सियासत में कहाँ अब अहमियत रिश्तों की होती है
यहाँ पर ख़ून का रिश्ता भी अक्सर टूट जाता है
                         
ज़ुुबां से प्यार के नग़में ग़ज़ल कहने नहीं देती
मुहब्बत का चमन आबाद ये रहने नहीं देती
कभी मंदिर बनाती है,कभी मस्ज़िद बनाती है
सियासत मुल्क़ में चैन-ओ-अमन रहने नहीं देती
                       
सियासत में किसी से कौन आख़िर दिल से मिलता है
यहाँ पर ताड़ का रिश्ता हमेशा तिल से मिलता है
कभी मंदिर औ मस्ज़िद का ये मसला हल नहीं होगा
चुनावी दौर में मुद्दा बहुत मुश्किल से मिलता है
                         
हवा भी क़ैद कर लेते कहीं जाने नहीं देते
किसी के खेत पर बादल कभी छाने नहीं देते
अग़र जो चाँद सूरज पे हुक़ूमत चल गयी होती
सियासी लोग घर-घर रोशनी आने नहीं देते
                          
हिंदू बाँटे,मुस्लिम बाँटे, और सिखों को बाँट दिया
मंदिर बाँटे,मस्ज़िद बाँटी, गुरुद्वारों को बाँट दिया
राजनीति ने कैसे-कैसे बँटवारे कर डाले हैं
भगवा हिन्दू, हरा मुसलमां, अब रंगों को बाँट दिया
                      
किताबों से,रिसालों से न कुछ पैग़ाम आएगा
न कोई तार ऊपर से किसी के नाम आएगा
हमेशा फ़ासला रखना सियासतमंद लोगों से
तज़ुर्बा है हमारा ये तुम्हारे काम आएगा
                      
बहुत बच-बच के चलना है,कहीं दंगा न हो जाये
कहीं रुसवा यहाँ मज़हब और गंगा न हो जाये
चुनावी रोटियाँ सिकने लगी हैं,फ़िर से सूबे में
मुझे डर लग रहा कोई कहीं दंगा न हो जाये
                      
 कलम के हैं सिपाही हम तो मन की बात करते हैं
कभी हिन्दू न मुस्लिम की,वतन की बात करते हैं
हमें मत वास्ता देना कभी मंदिर औ मस्ज़िद का
रहें मिलजुल के हम ऐसे जतन की बात करते हैं
                        
सच को भी अब कहने में डर लगता है
जानें कैसा अब ये मंज़र लगता है
हिंदुस्तान उसी का है गर सच पूछो
जिस-जिस को भी ये अपना घर लगता है
                        
नहीं कोई ख़्वाहिश कि गायक बना दे
नहीं चाह सेना का नायक बना दे
सुना है करोड़ों में बिकने लगे हैं
मुझे मेरे मालिक विधायक बना दे