श्याम पिया के रंग रँगा मन कैसे उसे रिझाऊं रे
चाह यही नित भोर  उठूं तो  दर्शन  तेरा पाऊँ रे।
रंग लगावे मोहन पहले मन में है  अभिलाष यही
भंग पिये सब रंग लगावत कैसे  बच के जाऊँ रे।।
होली  का  त्यौहार  उमंगित  करता है
मन  को  बारम्बार विहंगित  करता  है।
रंगों  से  बदरंग  हुआ  चेहरा  फिर भी
जीवन  को  हर बार  तरंगित करता है।।
कुर्सी  बनी   हुई  है  जैसे  गुलाब   की
है डोल रही  नीयत  देखो  जनाब  की।
लगती बड़ी सुहानी पर जख़्म भी देती
ज्यों धूप  आसमां में हो आफ़ताब  की।।
धुन वंशी  की  गूंज  रही  यमुना तीरे
मुग्ध गगन है  लगी  डोलने  अवनी रे।
देव, दनुज,गन्धर्व  सभी हैं  झूम  रहे
बात करूँ क्या धरती के मानव की रे।।
जो सत्य के  पुजारी  दो टूक कह गये
सुन के उसे वाचाल सभी मूक रह गये।
थे  दाग  रहे  गोले  जो  प्रश्नबमों के
गोली  के  बिना  जैसे  बन्दूक  रह गये।।