मुक्तक-48 / रंजना वर्मा

ऐसा तो जमाने मे है मंजर नहीं देखा
हाथों में कभी दोस्त के ख़ंजर नहीं देखा।
मेहनत से जिसे जोत के बोया हो प्यार से
ऐसे किसी भी खेत को बंजर नहीं देखा।।

मारें किसी पे हमको वो पत्थर नहीं मिले
फूलों को जो सँभालते पतझर नहीं मिले।
हम जिसको बना देवता मंदिर में बिठाते
पत्थर बहुत मिले मगर शंकर नहीं मिले।।

मूरत बनायी प्यार की श्रीराम कह दिया
मुरली थमा के हाथ मे घनश्याम कह दिया।
नदियाँ पहाड़ से जो बहा लायीं शिलाएँ
माथे लगा उसे भी शालिग्राम कह दिया।।

शहर कैसा यहाँ आकाश भी नीला नहीं दिखता
बरसते घन धरा आँचल मगर गीला नहीं दिखता।
न लाली भोर में दिखती न सन्ध्या में सुनहरापन
निशा हो चाँदनी पर चाँद भी पीला नहीं दिखता।।

सुनाती हूँ जिसे मैं वो मेरे घर की कहानी है
इसे मत आज समझो बात ये सदियों पुरानी है।
अयोध्या वह जिसे जीता नही है देव भूपति ने
यहाँ हनुमान हैं रहते यहाँ सरयू का पानी है।।

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