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मुक्तक-69 / रंजना वर्मा

करे निर्दोष की हत्या रंगे जो हाथ को खूं से
न हिन्दू है न मुस्लिम है न है औलाद इंसाँ की।
न हैं हम जानते उन को नहीं पहचानते उनको
लगा देते हैं पल भर में जो बोली ऐसे ईमां की।।

बरस बाद लो देखो फिर आया सावन
तपन मिटायी सब के मनभाया सावन।
प्यासी धरती की अब प्यास बुझी साथी
खेत बाग़ बगिया को हरियाया सावन।।

आओ मिलो सब से गले
तो प्रेम की बगिया खिले।
कुछ स्नेह हो सम्मान हो
मिलकर चलो मंजिल मिले।।

रूप पर तू न अपने कभी मान कर
है गलत या सही इस की पहचान कर।
चार दिन के लिये ही है सूरत मिली
ढल ही जायेगी इस पे न अभिमान कर।।

जिंदगी की नेमतों से फूल कर
ख्वाब के झूलों में जी भर झूल कर।
सख़्तियों ने जब किया बेहाल तो
इश्क़ की महफ़िल में आये भूल कर।।