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मुक्ति-क्षण / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

कुछ ऐसा खुलकर खुलना चाह रहा मन
इस क्षण
कि अँगूठी भी बन्धन लगती है;
लूँ इसे निकाल,
छिपा लूँ कहीं बगल में,-
इसलिए
कि सारे बन्धन छिपा-छिपाकर
आदमी सदा
अनुभूति जगाता रहता,
ज़िन्दगी कभी जिससे जीवित लगती है !
तो......
इस उन्मुक्त निमिष में
अंतर नहीं अमृत औ’ विष में,
जितनी मादक-
मुसकान मधुर लगती है,
उतनी मोहक-
पीड़ा लगती क्षण-दिशि में !
इस उन्मुक्त निमिष में-
मेघ-भरे दिन का धूमिल मुख
गीला-गीला,
रूखे-सूखे पेड़ों का रुख
पीला-पीला,
धूल-भरी भूली बेखौफ़ हवा के झोंके...
कौन विकल गाने की उमड़ती धुन को रोके-
“तुझे ओ बेवफ़ा, हम ज़िन्दगी का आसरा समझे,
बड़े नादान थे हम हाय ! समझे भी तो क्या समझे ?”
-बहुत भारी
भरे इस आसमाँ के
बहुत नीचे, बहुत हल्की हवा में-
उलझती साँस की घन जालियों से
कढ़ी आती हृदय में तान तीखी,-
किसी की धड़कनों के स्वप्न की
लपटों सरीखी,-
कहीं मानस-क्षितिज के पार की
अमराईयों से;
नहीं जो ठीक से अब तक कभी
इस पार दीखी !
बहुत निर्बंध होना चाहता मन,-
दिलाने को यकीं फिर से उसे गहराईयों का,
छिपाये है जिसे अब तक प्रतीक्षा का पठार
कि होगा तो कभी साकार खुद
विश्वास का आधार !
बन्धनों के पार थमना चाहता मन,...
आज, इस क्षण, आज खुलना चाहता मन !