मेरे गो-कुल की काली रातों के ऐ काले सन्देश,
रे आ-नन्द-अजिर के मीठे, प्यारे घुँघराले सन्देश।
कृष-प्राय, कृषकों के, आ राधे लख हरियाले सन्देश,
माखन की रिश्वत के नर्तक, मेरे मतवाले सन्देश,
जरा गुद-गुदा दे पगथलियाँ, किलक दतुलियाँ दीखें तो।
चुटकी ले लेने दे, चिढ़े अहीरी-तू कुछ चीखे तो।
अरे कंस के बन्दी-गृह की,
उन्मादक किलकार!
तीस करोड़ बन्दियों का भी
खुल जाने दे द्वार।
रचनाकाल: चार सितम्बर, खण्डवा-१९२६