तीखीं धूप में अनगिनत हवा की चीखें
तुम्हारी अपनी आवाज़
कहीं दब जाती है
मौसमों से लड़ता आदमी
अंततः अपनी जंग हार जाता है
इक कृतज्ञता का अहसास करते करते
अपना स्वयं का होना भूलती है औरतें
इक आँगन पसरा धूप
और
ऊँची ऊँची चहारदीवारियाँ
बंधनों से ना काया घिरती
ना
माया मुक्त होती
कभी कभी यूँ भी होता है
आराम से घिरा आदमी सबसे अत्यधिक बेज़ार होता है
तुम्हारे निर्मित संग्रहालय में
सिर्फ हड़प्पा, मोहनजोदाड़ो की खंडित यक्षिणी ही नहीं रहती
वहाँ जीती जागती औरते भी
बुतों के माफ़िक रखी जाती हैं!
कविता!
तुम स्वर में हो
या
शब्द में
मुक्ति की आकांक्षा तो तुम्हें भी होगी!