क्षिति दिगंचल चूमता आकाश,
दिशि-विदिशि की प्राण-धारा चेतना की मुरलिका से
शून्य वन गुंजित, नया रव आज भव में भर चला।
उठ रहे श्रावण घटा से प्रिय-मिलन क्षण
जगमगाते हर निमिष में मुक्ति के आभास
ज्योति अब लेने लगी है जागरण की साँस।
एक-दो नक्षत्र रह-रह
सो रहे अपनी व्यथा कह।
घुल रहा तम
दूर गुम-सुम प्राण तुम।
अधजगी-सी भैरवी स्वर भर रही हो
और भिनसारा पुलक कर बाँटता है प्यास।
मुक्ति में जीवन नहा कर
हर दिशा में फेंकता है
नव-सृजन के फूल भर-भर।
और टूटे कर बढ़ा कर झेलते खँडहर
अजानी आस।
बाल पाँखी तोड़ पिंजर
खोजने निज जीर्ण कोटर
वायुमण्डल चीरता उड़ जा रहा है ले नया विश्वास।
सृष्टि के सौन्दर्य से सज्जित नया आकाश।