Last modified on 15 अगस्त 2008, at 19:50

मुक्त-कंठ / महेन्द्र भटनागर

कौन है
जो तुम्हें सच
बोलने नहीं देता ?
कौन है
जो तुम्हें
ज़िन्दगी की असलियत
खोलने नहीं देता ?
कौन है हावी
तुम्हारी चेतना पर ?
किसने
बाँध दी हैं शृंखलाएँ
अन्तःप्रेरणा पर ?

किसने
दबोच रखा है, भला
तुम्हारा गला ?

चेहरे पर अंकित
रेखाएँ घुटन की,
डबडबायी आँखें
चीखती —
निरीहता मन की !

कब तलक
रहेगा सूखा हलक़ ?

आवाज़ —
भर्रायी हुई आवाज़
बोलती है,
कितना स्पष्ट
सब बोलती है !

नहीं,
यह बंध शिथिल हो,
हर धड़कन पर शिथिल हो !
कंठ मुक्त हो,
उन्मुक्त हो !
बोलो —
जकड़न टूटेगी !
शब्द-शब्द से
रोशनी फूटेगी !