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मुझको ही डाँटा / दिनेश चमोला ‘शैलेश’

दीदी भूली सैर-सपाटा
सबुह-सुबह ही
दही-परांठा,
खाकर करती
आटा-बाटा।
कोई नहीं पूछता मेरे
मारा दीदी ने क्यों चाँटा?

रोज सवेरे
दौड़ी आती,
मुँह बिचकाकर
मुझे खिजाती।
कितनी बार शिकायत की पर
कभी किसी ने उसको डांटा?

सोते-सोते
मुझे जगाती,
‘कुर्र’ कान की
काना-बाती।
मैं बोली क्यों करती ऐसा?
पर उलटा मुझको ही डाँटा!