एक दिन मैं
राह के किनारे मरा पड़ा पाया जाऊँगा
तब मुड़-मुड़ कर साधिकार लोग पूछेंगे :
हमें पहले क्यों नहीं बताया गया
कि इस में जान है?
पर तब देर हो चुकी होगी।
तब मैं हँस न सकूँगा।
इस बात को ले कर
मुझे आज हँसना चाहिए।
इतिहास का काम
इतने से सध जाएगा कि
एक था जो-था
अब नहीं है-पाया गया।
पर जो मैं जिया, जो मैं जिया,
जो रोया-हँसा
जो मैं ने पाया, जो किया,
उस का क्या होगा?
उस के लिए भी है एक नाम :
‘आया-गया’
इस नाम को ले कर
मुझे आज हँसना चाहिए
मेरे जैसे करोड़ों हैं
जिन से इतिहास का काम
इसी तरह सधता है :
कि थे-नहीं हैं।
उन का सुख-दुःख, पाना-खोना
अर्थ नहीं रखता, केवल होना
-या अन्ततः न होना।
वे नहीं जानते इतिहास, या अर्थ;
वे हँसते हैं। और लेते हैं
भगवान् का नाम।
इस बात को ले कर
मुझे आज हँसना चाहिए।
इसी लिए तो
जिस का इतिहास होता है
उन के देवता हँसते हुए नहीं होते :
कैसे हँस सकते?
और जिनके देवता हँसते हुए होते हैं
उन का इतिहास नहीं होता :
कैसे हो सकता
इसी बात को ले कर
मुझे आज हँसना चाहिए...
नयी दिल्ली, अगस्त, 1969