मैं पाषाण-हृदय हूँ;
ऐसा मुझे मत बोलो प्रिय
पत्थरों से ही फूटती हैं धाराएँ
पहाड़ियों का सीना चीर कर
उन्मुक्त होकर तृप्त करती हैं
प्यासे तन-मन, कण-कण को;
किन्तु इन्हें द्रवित करने को
चाहिए- निश्छल भगीरथ-प्रयास
शंकर सा अडिग, अदम्य साहस,
जो पवित्र उफनती धाराओं को
शिरोधार्य कर सके हँसते हुए।
मैं चाहती हूँ द्रवित होना;
किन्तु मुझे प्रतीक्षा है-
निश्छल भगीरथ-शंकर की
जो पिघला सके पाषाण- हृदय
और जलधारा में रूपांतरित
मेरे चिर-प्रवाह को सँभाले- सँवारे।
वचनबद्ध हूँ- तृप्ति हेतु ; किन्तु
तुम भगीरथ-शिव बनने का
वचन दे सकोगे क्या प्रिय ?
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