मुझे बुलाता है पहाड़ मैं तो जाऊँगा
निर्मल जल के वे झरने कल
बैठ जहाँ अविपालों के दल
देते काट दुपहरी के पल
वहीं उन्हीं के सुख दुख से घुलमिल जाऊँगा
नभ में नीरव चंचल बादल
रूई के गाले से उज्ज्वल
बिखर रहे होंगे दल के दल
लेता हुआ हवा छाँही से लख पाऊँगा
संकट से चल मेषों के दल
चरते होंगे चंचल चंचल
विस्तृत होगा हरा भरा स्थल
गीत गड़रियों के सुन सुन कर दुहराऊँगा
चोटी से चोटी पर जा कर
रुक कर, गीत स्वप्नमय गा कर
रूखी सूखी रोटी खा कर
वृक्ष लताओं के परिचय में फिर आऊँगा
वे मजूर से राजा रानी
सुख दुख वाली दुनिया जानी
अपनी ही तो साँस कहानी
अपनेपन की ही लहरों को दिखलाऊँगा
(रचना-काल - 05-11-48)