मैं क़ैद पड़ा हूँ आज
अंधेरी दीवारों में;
दीवारें -
जिनमें कहते हैं
रहती क़ैद हवा है,
रहता क़ैद प्रकाश !
जहाँ कि केवल फैला
सन्नाटे का राज !
पर, मैं तो अनुभव करता हूँ
बेरोक हवा का,
आँखों से देखा करता हूँ
लक्ष-लक्ष ज्योतिर्मय-पिण्डों को,
मुझको तो
खूब सुनायी देती हैं
मेरे साथी मनुजों के
चलते, बढ़ते, लड़ते
क़दमों की आवाज़ !
मेरे साथी मनुजों के
अभियानों के गानों की
अभियानों के बाजों की
आवाज़ !
मुझे भरोसा है
मेरे साथी आकर
कारा के ताले तोड़ेंगे,
जन-द्रोही सत्ता का
ऊँचा गर्वीला मस्तक फोड़ेंगे !
इंसान नहीं फिर कुचला जाएगा,
इंसान नहीं फिर
इच्छाओं का खेल बनाया जाएगा !
1951