Last modified on 10 नवम्बर 2020, at 18:14

मुझे विजित ही करके / रामगोपाल 'रुद्र'

मुझे विजित ही करके क्या तुम जीत बनोगे?

लाज बनी रहने दो! मुझे प्रलोभन मत दो!
इनके लिए मुझे मन मत दो! लोचन मत दो!
नहीं चाहिए दृष्टि तुम्हारी, इन जालों से
नहीं चाहिए! नहीं चाहिए! यह धन मत दो!
मुझे घृणित ही करके क्या तुम प्रीत बनोगे?

पथ चलता जाता है, पंथी ही अविचल है;
गगन बदलता जाता, बादल ही अविकल है;
गरल पिये जल जलता, ज्वाला प्यास बुझाती,
परिमल का पहरा है, बन्‍दी बना कमल है;
मुझे रुदित ही करके क्या तुम गीत बनोगे?