बचपन में
माँ मुट्ठी भर आटा
रोज़ परात से एक कनस्तर में
डालती थी
सदाव्रत के लिए
नियम अटल था
बस मुट्ठी भर
पर मेरी उंगलियों के बीच से
रेत की तरह फिसल रहे हैं
मुट्ठी भर सपने
मुट्ठी भर हवा
मुट्ठी भर आकाश
मुट्ठी भर धूप
मुट्ठी भर देश भी।