Last modified on 3 जनवरी 2008, at 03:31

मुरली / सूरदास

जब हरि मुरली अधर धरत ।
थिर चर, चर थिर, पवन थकित रहैं, जमुना जल न बहत ॥
खग मौहैं मृग-जूथ भुलाहीं, निरखि मदन-छबि छरत ।
पसु मोहैं सुरभी विथकित, तृन दंतनि टेकि रहत ॥
सुक सनकादि सकल मुनि मोहैं ,ध्यान न तनक गहत ।
सूरदास भाग हैं तिनके, जे या सुखहिं लहत ॥1॥

(कहौं कहा) अंगनि की सुधि बिसरि गई ।
स्याम-अधर मृदु सुनत मुरलिका, चकित नारि भईं ॥
जौ जैसैं तो तैसै रहि गईं, सुख-दुख कह्यौ न जाइ ।
लिखी चित्र सी सूर ह्वै रहिं, इकटक पल बिसराइ ॥2॥


मुरली धुनि स्रवन सुनत,भवन रहि न परै;
ऐसी को चतुर नारि, धीरज मन धरै ॥
सुर नर मुनि सुनत सुधि नम सिव-समाधि टरै ।
अपनी गति तजत पवन, सरिता नहिं ढरै ॥
मोहन-मुख-मुरली, मन मोहिनि बस करै ।
सूरदास सुनत स्रवन, सुधा-सिंधु भरै ॥3॥


बाँसुरी बजाइ आछे, रंग सौं मुरारी ।
सुनि कै धुनि छूटि गई, सँकर की तारी ॥
वेद पढ़न भूलि गए, ब्रह्मा ब्रह्मचारी ।
रसना गुन कहि न सकै, ऐसी सुधि बिसारी !
इंद्र-सभा थकित भइ, लगो जब करारी ।
रंभा कौ मान मिट्यौ, भूली नृत कारी ॥
जमुना जू थकित भई, नहीं सुधि सँभारी ।
सूरदास मुरली है, तीन-लोक-प्यारी ॥4॥


मुरली तऊ गुपालहिं भावत ।
सुनि री सखी जदपि नँदलालहिं, नाना भाँति नचावति ।
राखति एक पाइ ठाढ़ौ करि, अति अधिकार जनावति ।
कोमल तन आज्ञा करवावति, कटि टेढ़ौ ह्वै आवति ॥
अति आधीन सुजान कनौड़े, गिरिधर नार नवावति ।
आपुन पौंढ़ि अधर सज्जा पर, कर पल्लव पलुटावति ।
झुकुटी कुटिल, नैन नासा-पुट, हम पर कोप करावति ।
सूर प्रसन्न जानि एकौ छिन , धर तैं सीस डुलावति ॥5॥


अधर-रस मुरली लूटन लागी ।
जा रस कौं षटरितु तप कीन्हौ, रस पियति सभागी ॥
कहाँ रही, कहँ तैं इह आई, कौनैं याहि बुलाई ?
चकित भई कहतिं ब्रजबासिनि, यह तौ भली न आई ॥
सावधान क्यौं होतिं नहीं तुम, उपजी बुरी बलाई ।
सूरदास प्रभु हम पर ताकौं, कीन्हों सौति बजाई ॥6॥


अबहौ तें हम सबनि बिसारी ।
ऐसे बस्य भये हरि बाके, जाति न दसा बिचारी ॥
कबहूँ कर पल्लव पर राखत, कबहूँ अधर लै धारी ।
कबहुँ लगाइ लेत हिरदै सौं, नैंकहुँ करत न न्यारी
मुरली स्याम किए बस अपनैं, जे कहियत गिरिधारी ।
सूरदास प्रभु कैं तन-मन-धन , बाँस बँसुरिया प्यारी ॥7॥

मुरली की सरि कौन करै ।
नंद-नंदन त्रिभुवन-पति नागर सो जो बस्य करै ॥
जबहीं जब मन आवत तब तब अधरनि पान करै ।
रहत स्याम आधीन सदाई आयसु तिनहिं करै ॥
ऐसी भई मोहिनी माई मोहन मोह करै ।
सुनहु सूर याके गुन ऐसे ऐसी करनि करै ॥8॥


काहै न मुरली सौं हरि जौरै।
काहैं न अधरनि धरै जु पुनि-पुनि मिली अचानक भोरैं ॥
काहैं नहीं ताहि कर धारैं, क्यौं नहिं ग्रीव नवावैं ।
काहैं न तनु त्रिभंग करि राखैं, ताके मनहिं चुरावैं ॥
काहैं न यौ आधीन रहैं ह्वै, वै अहीर वह बेनु ।
सूर स्याम कर तैं नहिं टारत, बन-बन चारत धेनु ॥9॥


मुरलिया कपट चतुरई ठानी ।
कैसें मिलि गई नंद-नंदन कौं, उन नाहिं न पहिचानी ॥
इक वह नारि , बचन मुख मीठे, सुनत स्याम ललचाने ।
जाँति-पाँति की कौन चलावै, वाकैं रंग भुलाने ॥
जाकौ मन मानत है जासौं , सो तहँई सुख मानै ।
सूर स्याम वाके गुन गावत, वह हरि के गुन गानै ॥10॥


स्यामहिं दोष कहा कहि दीजै ।
कहा बात सुरली सौं कहियै, सब अपनेहिं सिर लीजै ॥
हमहीं कहति बजावहु मोहन, यह नाहीं तब जानी ।
हम जानी यह बाँस बँसुरिया, को जानै पटरानी ॥
बारे तैं मुँह लागत लागत, अब ह्वै गई सयानी ।
सुनहु सूर हम भौरी-भारी, याकी अकथ कहानी ॥11॥


मुरली कहै सु स्याम करैं री ।
वाही कैं बस भये रहत हैं, वाकैं रंग ढरैं री ॥
घर बन, रैन-दिना सँग डोलत, कर तैं करत न न्यारी ।
आई उन बलाइ यह हमकौं, कहा दीजियै गारी ।
अब लौं रहें हमारे माई, इहिं अपने अब कीन्हे ।
सूर स्याम नागर यह नागरि, दुहुँनि भलै कर चीन्हे ॥12॥


मेरे दुख कौ ओर नहीं ।
षट रितु सीत उष्न बरषा मैं, ठाढ़े पाइ रही ॥
कसकी नहीं नैकुहूँ काटत, घामैं राखी डारि ।
अगिनि सुलाक देत नहिं मुरकी, बेह बनावत जारि ॥
तुम जानति मोहिं बाँस बँसुरिया, अगिनि छाप दै आई ।
सूर स्याम ऐसैं तुम लेहु न, खिझति कहाँ हौ माई ॥13॥


श्रम करिहौ जब मेरी सौ ।
तब तुम अधर-सुधा-रस बिलसहु, मैं ह्वै रहिहौं चेरी सी ।
बिना कष्ट यह फल न पाइहौं, जानति हौ अवडेरी सी ।
षटरितु सीत तपनि तन गारौ, बाँस बँसुरिया केरी सी ॥
कहा मौन ह्वै ह्वै जु रही हौ, कहा करत अवसेरी सी ।
सुनहु सूर मैं न्यारी ह्वै हौं, जब देखौं तुम मेरी सी ॥14॥

मुरली स्याम बजावन दै री ।
स्रवननि सुधा पियति काहैं नहिं, इहिं तू जनि बरजै री ।
सुनति नहीं वह कहति कहा है, राधा राधा नाम ।
तू जानति हरि भूल गए मोहिं, तुम एकै पति बाम ॥
वाही कैं मुख नाम धरावत, हमहिं मिलावत ताहिं ।
सूर स्याम हमकौं नही बिसरे, तुम डरपति हौ काहि ॥15॥


मुरलिया मोकौं लागति प्यारी ।
मिली अचानक आइ कहूँ तैं, ऐसी रही कहाँ री ॥
धनि याके पितु-मातु, धन्य यह, धन्य-धन्य मृदु बालनि ।
धन स्याम गुन गुनि कै ल्याए, नागरि चतुर अमोलनि ॥
यह निरमोल मोल नहिं याकौ,भली न यातैं कोई ।
सूरदास याके पटतर कौ, तौ दीजै जौ होई ॥16॥