मुर्दा यह शाम हुई !
उखड़े से लगते हैं लोग
टूटा-टूटा सा परिवेश
बर्फ़ हुआ जाता आवेश
हिचकी-सी लेते उपभोग
चौराहे पर अपनी
धड़कन नीलाम हुई !
बारूदी गन्ध अब झाँकती
खिड़की से, काँपती निशा
हाँफ़-हाँफ़ जाती दिशा
बेचैनी अम्बर को ताकती
जंग लगी चिन्तन में
यात्रा यह जाम हुई !
टूट-टूट शृंखला बिखरती
सीटी-सी बजती है कानों में
इन बीहड़ जंगल-मैदानों में
अस्त-व्यस्त भावना विचरती
चलती रहने वाली
ज़िन्दगी विराम हुई !
मुर्दा यह शाम हुई !