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मुलाक़ात / अज्ञेय

तुम्हारी पलकों के पीछे
रह-रह सुलगते अंगार हैं...
माना
आग के परदों के पीछे
वहाँ प्रकाश के और संसार हैं
मगर
परदा उठाओ मत-
उस प्रकाश के पीछे फिर
राख के अम्बार हैं!

आग को न छेड़ो-
सुलगना भी सुन्दर है
दबी भी
आग देर तक तपाती रहेगी...
(आग को
छुआ नहीं था न, इस की हसरत
दिनों तक सहलाती रहेगी)

लो-हो गयी मुलाकात :
अब तुम्हारी राह उधर
मेरी इधर :
न हुई सही बात-
पर यह तो जान लिया
कि जलते तो जा रहे हैं अविराम-
और यों चलते ही जा रहे हैं
नातमाम...

नयी दिल्ली, 1979