कितनी बारिशों को
पिया हमने,
कितने बसंतों को
जिया हमने
कभी पिघलती ग्रीष्म में
खुद को तपाया
शिशिर को
उम्मीदों से गर्माया
पतझड़ में भी
स्वयं पीड़ा-पतिकाओं को गिराया
हर बार कुछ नए
सिलसिलों को उगाया
कभी खुद को खुद से
न मिलाया हमने
इस सफ़र में बाकी है
बस एक मुलाकात॥