तेरे मेरे रिश्ते को ओंस और
सूखी ज़मीन-सा रहने दो...
चाहतों को एक दूजे की
बेचैनियों के कर सुपुर्द
कमियों के एहसासों को
मरुस्थल के रेत-सा तपने दो...
मौन में बसे कुछ शब्द
कभी सरककर होठों पर
ठहर जाए तो
बे-मौसम की बरसातों की तरह
भीग-भीग कर उन्हें भी
तृप्त होने को शब्द दो...
नहीं जगती कभी उम्मीदें
शाख़ पर लटके-छूटते
सूखे पत्तों के हरा होने की
बारिशों की चंद ही सही
कुछ ही बूंदों से
उन्हें भी निखरने दो...
रहती है कुछ न कुछ कमी
हरेक की ज़िन्दगी में
कुछ एहसासों को महसूसने को
थोड़ी-सी ही सही
ख़ामोशी और सकूं को
मुस्कुराहटों में बदलने दो...