Last modified on 11 मई 2009, at 17:08

मुहब्बत की खुमारी / रवीन्द्र दास

नहीं फ़ितरत हमारी है कि हम
फ़कत बकवास करते हों
नहीं बेबस भी है इतने कि आकर दुम हिलाएंगे
अभी जो मुस्कुराता आपकी आँखों में झाँके हूँ
महज इक चांदमारी है

नहीं समझे?
तो यूँ समझें कि हम कविता के मारे हैं
उसी ज़ालिम ने करके रख दिया
अख़बार बासी-सा
अरे कैसे बताऊँ ये
मुहब्बत की खुमारी है

कि गोया आसमानों में भी दरिया-सा दिखे है
मगर अफ़सोस उसमे मैं तुम्हें नहला नहीं सकता
कि उसका रास्ता
ज़ालिम हमारे दिल से जाता है

तुम्हें है सोचना
जाना अगर है आसमान तक जो
वही है स्वर्ग
ज़न्नत भी सभी कहते उसे ही हैं

वहाँ नीला समंदर है
मुहब्बत की खुमारी है
मुहब्बत की खुमारी है ।