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मुहब्बत की छाँव / मख़दूम मोहिउद्दीन

हम मुहब्बत की छाँव में सोते थे जब
        ख़ार<ref>काँटे</ref> भी फूल मालूम होते थे जब ।
इब्तेदा-ए-जुनूँ की वो एक बात थी
        वो मुहब्बत की तारों भरी रात थी ।
दिल के तारों से मिज़राब<ref>अंगुश्ता, जिसे उँगली में पहनकर जिससे सितार या सरोद बजाते हैं</ref> टकरा गया
        आतिशें ले उठी क़ैफ़<ref>आनन्द</ref>-सा छा गया ।
हुस्न का वार जो था वो भरपूर था
        जिसको देखा नज़र भर के वो तूर था ।
दिल को एक बार सब धो गईं बिजलियाँ
        मेरी रग-रग में हल<ref>घुलना</ref> हो गईं बिजलियाँ ।
दर्दे-दिल का बहाना बनी दिल्लगी
        आँसुओं का फ़साना बनी दिल्लगी ।
पल के पल में बदलने लगी ज़िंदगी
        ग़म के साँचों में ढलने लगी ज़िंदगी ।
चाह का दिन ढला शाम होने लगी
        दिल धड़कने लगा आँख रोने लगी ।
रात और दिन यूँ ही आते जाते रहे
        हुस्न और इश्क़ तकमील<ref>पूर्णता</ref> पाते रहे ।

शब्दार्थ
<references/>