वाराहावतार की प्रतिमा औंडिहार में
- देखी जलौघमग्ना सचराचरा धरा की
- करूण मूर्त्ती मन में लहराई । विपद वराकी
को क्या सहनी पड़ी । उसी के समुद्धार में
लग्न देव मुद्रा तक्षित थी । नराकार में
- आगे-पीछे सुदृढ़ चरण, कर स्वयं त्वरा की
- अभिव्यक्ति थे, स्फूर्तिमयी थी परम्परा की
यह छवि । सब कुछ का संमूर्तन था उभार में ।
आए कुछ ग्रामीण, नत हुए और बजाया
- भक्तिभाव से घंटा । बात किसी ने पूछी,
- "कौन देवता हैं ये ।" "बात कहूंगा आगे,"
कह कर वयोवृद्ध डगरा; उन को डगराया ।
- मैं ने देखा प्रणति भक्ति दोनों हैं छूछी ।
इनमें भाव कहाँ जो मूर्त्तिकार में जागे ।