बेसमझ अनजान हूँ मैं
कल्पफल को त्याग सेमल-फूल पर कुबान हूँ मैं;
बेसमझ अनजान हूँ मैं।
काक-कर्कश-कंठ में पिक की मधुर ध्वनि दी सुनाई,
स्वाति-अम्बुद-बूँद भ्रम से मृग-सलिल में दी दिखाई,
हाय, मैंने पù-मणि तज घुंघचियों से ली लगाई,
हाथ में दर्पण, नयन से निपट अन्ध-समान हूँ मैं!
बेसमझ अनजान हूँ मैं।
धूल में है शर्करा, बल से कहो कैसे निकलूँ?
पटु रसज्ञ पिपीलिका-सा जी सरस कैसे बना लूँ?
फूल में मधु, मधुप की संचय-कला कैसे भला लूँ?
गन्ध से निज दूर मृग-सा मन्दमति नादान हूँ मैं;
बेसमझ अनजान हूँ मैं।
निहित अन्तःपृष्ठ में हैं ब्रह्मऋचाएँ ललित याँ,
अन्ध मानस-घन-गुहा में दिव्य चिन्तामणि ज्वलित याँ,
चिर प्रवाहित मधुर मन्दाकिनि हृदय में संचालित याँ,
एकरस, निर्मल, निरंजन, प्रेमधन, रसखान हूँ मैं;
पर अबुझ अनजान हूँ मैं।
भटक शत-शत घर्षणों में विकल कब से फिर रहा हूँ,
कर्म-कोल्हू में निरन्तर कुचल घिर-घिर पिर रहा हूँ,
पंक-पिच्छिल, शूल-संकुल पंथ दुर्गम गिर रहा हूँ,
अम्बु से हो विलग व्याकुल मीन-सा म्रियमाण हूँ मैं;
बेसमझ अनजान हूँ मैं।
(रचना-काल: अक्तूबर, 1937,। ‘हंस’, नवम्बर, 1937 मंे प्रकाशित।)