एक आदिवासी लड़की
जन्म भर की दुत्कार
उपहास और अपमान को
पैरों तले रौंदकर ख़त्म कर देना चाहती है
ठेंगा दिखाना चाहती है दुनिया को
पाना चाहती है थोड़ी सी इज़्ज़त
कर लेती है विवाह सवर्ण युवक से ।
तर जाता है वह भी
अपनी अयोग्यता
और बेरोज़गार होने के कलंक को
धो डालता है माथे से ।
तथाकथित पत्नी के नाम से मिल जाता है लोन
ख़रीद ली जाती है ज़मीन
बन जाता है मकान ।
झूठे सुख की चाह
भटकाती है बियाबान में ।
उत्सवों, मांगलिक अवसरों पर
वह अप्रत्यक्ष
उसकी अप्रत्यक्षता
निगल जाती है सब कुछ।
मारपीट, छोड़ देने की धमकी
फटफटिया दौड़ाता है वह सी०सी० रोड पर
और
वह बेचारी भटक जाती है
रेगिस्तानी मृग-मरिचिका में
जहाँ रास्ता तो है
मगर मँज़िल का पता नहीं ।