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मृत्यु गीत / 11 / भील

भील लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

टांडो लाद चल्यो बणजारो।

टेक- अरे मन लोभी थारो काई रयण को पतियारो।

चौक-1 गिर पड्यो कोट, बिखर गइ माटी॥
    माटी को हुइ गयो गारो, थारो कइ रयण को पतियारो।
    मन लोभी थारो कइ रयण को पतियारो।

चौक-2 वाड़ लगायो तुन बहुत रसीलो भाई
    जेकि पेरी को रस न्यारो-न्यारो।
    थारो रयण को कइ पतियारो।
    
चौक-3 बुझ गयो दीपक जळ गइ बाती॥
    भाई थारा महल म पड़ि गयो अंधियारो।
    थारो काइ रयण को पतियारो
    मन लोभी, टांडो लाच चल्यो बणझारो,
    थारो काइ रयण को पतियारो

चौक-4 लेय कटोरो भिक मांगण निकल्यो॥
    भाइ कोइ न नि दियो उधारो,
    थारो रयण को काइ पतियारो।
    टांडो लाद चल्यो बणझाारो,
    थारो रयण को काइ पतियारो।

छाप- कई ये कबीर सुणो भई साधु
    ऐसा संत अमरापुर पाया,
    थारो रयण को कइ पतियारो।

- बणजारा अपना टांडा बैलों पर लादकर चला। अरे मानव! तू उस बणजारे की
बालद के समान अल्प समय के लिए इस संसार में आया है। बणजारा अपने मार्ग
पर जाते हुए रात्रि में ठहरता है और सबेरा होते ही अपने गंतव्य की ओर टाण्डा
(माल-असबाब) बैलों पर लादकर चल पड़ता है, उसी के समान मानव तू भी दुनिया
में आया है और समय पूरा होने पर चल पड़ेगा। अरे मन! तेरे रहने का क्या भरोसा
है, यानी कब दुनिया से जाना पड़ेगा, क्या भरोसा है?

यह शरीर पंचत्व का बना है, कच्ची मिट्टी के कोट के समान है। जिस प्रकार कच्ची
मिट्टी का किला गिरकर बिखर जाता है और उस माटी का गारा हो जाता है, उसी
प्रकार कब जीव इस घर को छोड़कर चला जायेगा और यह पंचतव्व द्वारा निर्मित देह
मिट्टी (गारा) हो जायेगी। तेरा रहने का क्या भरोसा है? अरे लोभी मन! तेरा रहने का
क्या भरोसा है? तात्पर्य है जो भी भजन, धरम-पुण्य, भले कार्य करके अपने मोक्ष प्राप्ति
का मार्ग प्रशस्त कर।

अरे लोभी मानव! तूने बहुत मीठे रस वाला गन्ने का खेत भरा, उस गन्ने की पेरी (गन्ने
में कुछ-कुछ दूरी पर गठानें होती हैं, उन गठानों के बीच के भाग को पेरी कहते हैं) के
रस की मिठास अलग होती है। जड़ के ऊपरी हिस्से की पेरी का रस ज्यादा मीठा होता
है और ऊपर जैसे-जैसे पेरी आती है क्रमशः उन पेरियों के रस की मिठास कम होती
जाती है।

मनुष्य तू प्रारम्भ से ही भगवान की भक्ति में लग जा और उस भक्ति की मिठास को प्राप्त
कर, उसमें मजा ले। आगे क्या भरोसा है, कब तक दुनिया में रहना होगा?

अरे मानव! दीपक बुझ जाता है और फिर रही-सही बत्ती भी जल जाती है। अरे भाई! दीपक
बुझा और तेरे महल में अंधेरा हुआ। जीव चला गया तो इस शरीर में अंधेरा हुआ और
शरीर की हलचल समाप्त हो जाती है। मानव तन तेरे रहने का क्या भरोसा है?
इसलिए प्रारम्भ से ही चेत जा। कबीरदास जी कहते हैं कि जो मनुष्य प्रारम्भ से
ही चेत कर भगवान की भक्ति और भले कर्म धरम-पुण्य कर लेते हैं, ऐसे संत
अमरापुर पा लेते हैं।