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मृत्योर्मा अमृतं / रति सक्सेना

फाइव स्टार जैसे
अस्पताल के गलियारे में
टहलते हुए मैं अचानक निश्चित करती हूँ
कि मुझे बुद्ध बनना है
जीवन, रोग और मृत्यु
चार चक्कर लगाने के बाद मेरा निश्चय
आकार लेने लगता है
निर्वाण, बस ...............निर्वाण

"मरण निश्चित है"
मैं अपने आप को समझाती हूँ
"फिर भी कुछ दिन और मिल जाएँ तो?"
गलियारे के चार चक्कर और लगाने पर भी
मैं सोच नहीं पाती हूँ मोक्ष के बारे में

अचानक दीमाग सोचने लगता है
मिनिट- मिनिट में बढते "मेडिकल बिल" के बारे में
एम्बुलेंस,नर्स,दवाइयाँ..
आश्चर्य... कि
मेरा सोया हुआ दर्शन जाग उठता है

"जो जा रहा है, उसे जाने दो
उसे बचाओं, जो बच सकता है"


मेरे शत्रु की साँसे धीमी पड़ रही हैं
उसकी आवाज रुकने लगी है
मैं रो पड़ती हूँ बुक्का मार के
उन सभी तीरों को याद कर के
जो मैंने उसके लिए संभाल के रखे थे


मैं बार-बार जन्म ले रही हूँ
अपने- आप में
हर बार मैं अपने को अपने से बेहतर
साबित करने की कोशिश करती हूँ

हर बार शत्रु बाजी मार जाता है।