मैं प्रेम का समंदर हूँ
और तुम उसमें उठती लहर
कभी शांत कभी तीव्र गति से
भूल जाते हो कभी कभी
कि तेज बहाव
मुझे ठेस भी पहुचाएगा
बस उफन कर बाहर निकल जाते हो
और मैं हर बार अपने स्वाभिमान को
किनारे रख तुम्हे फिर से
समाने देती हूँ
खुद के अंदर
क्योंकि जानती हूँ मैं
मेरी गहराईयों में समाये
सीप और मोती
इसी उछाल से बाहर आएंगे