मन ही मन
कड़ाके की इस ठंड़ को कोसता
अपनी बड़ी गाड़ी में बैठ
सुबह-सुबह
जब दफ़्तर के लिए निकला
तो अचानक याद आए बाबूजी
और
उनकी वह इकलौती गर्म जैकेट,
उनका मफ़लर और वे दास्ताने।
और याद आई
उनकी वही पुरानी साईकिल।
और फिर
आँखों के आगे आकर घूमने लगा
साईकिल का वह पहिया
और मुझे याद दिला गया
सफ़र
मेरे
वहाँ से
यहाँ तक का।
और याद दिला गया
मुझे
मेरा अस्तित्व-
मेरे बाबूजी।