अपना पता ठिकाना क्या दूँ, मेरा घर तो यह दुनिया।
पर्वत जिसकी दीवारंे मज़बूत गगन जैसी छत है,
हर बादल मकड़ी-जाले-सा दर्द बटाने में रत है,
मलय-पवन माँ की ममता-सा, पिता तुल्य सागर गहरा,
शाँति सचाई बहनें हैं जो जग-जग कर देती पहरा,
अणुयुग जिसके द्वार खड़ा है बनकर सूदखोर बनियाँ,
अपना पता ठिकाना क्या दूँ, मेरा घर तो यह दुनिया।
मैं शिशु हूँ धरती पलने-सी, सूरज चाँद खिलौने-से,
सुबह जगाती, शाम सुलाती, मधुवन फूल बिछौने-से,
ऋतुयें जन्म मरण से बँधती मेरा मन बहलाने को,
आंधी आती बाँह पकड़ पैदल चलना सिखलाने को,
जीने की तहजीब सिखाती, जीकर प्रगतिशील नदियाँ,
अपना पता ठिकाना क्या दूँ, मेरा घर तो यह दुनिया।
गीत लिखा करता हूँ मैं इस जीवन के गुन अवगुन पर,
प्रीत किया करता हूँ हर चुभते काँटे को चुन-चुन कर,
मृत्यु मुझे डसने आती पर, रह जाती देकर धमकी,
क्योंकि पिये हूँ मैं मदिरा अनगिन मन प्राणों के ग़म की,
इसी तरह मेरा कवि जीवित बीत गईं लाखों सदियाँ,
अपना पता ठिकाना क्या दूँ, मेरा घर तो यह दुनिया।