सामना होते ही
दर्पण मेरा हाल-चाल पूछता है
फिर धीरे से कहता है
इधर बहुत गुस्सैल दिखने लगे हो
माथे की दोनों खड़ी सिलवटें
अब तो त्रिशूल बन चलीं है
अरे, यह झूट-मूठ मुस्कराने की हिमाकत छोड़ो
...आते-आते ही आती है, मुस्कराने की कला !
बड़े-बड़े आये
हम से नहीं छिप पाए
फिर तुम कौन खेत की मूली हो
रंग पोत कर उम्र छिपाते हो
किसे बनाते हो ?
तिलमिलाओ मत !
मुझे तोड़ने की मूर्खता भी मत करना
टूटते ही
तुम्हारे सभी मुखौटे भेदकर
पारे की तरह
भीतर तक छितरा जाऊँगा
कोई मरहम
भर नहीं पाती
मेरे दिए घाव !
किरच-किरच धंसता हूँ
तुम सों पर हंसता हूँ !
दर्पण हूँ, दर्प चूर करता हूँ
टूट भी जाऊं तो
सच के लिये मरता हूँ ।