जाने कितने रंग चढ़ रहे अन्तर्मन पर,
नित्य-निरन्तर, प्रतिमुहूर्त्त प्रतिक्षण, निशि-वासर।
तिमिरनीललोहित पाण्डुतायुक्त स्वर्णोपम,
हरिद्राभ्र, किरमिजी, बैगनी, श्याम, मनोरम।
कलुष-मलीमस, स्फटिक-स्वच्छ, शुचि विशद समुज्ज्वल,
प्याजी, धानी, फालसई, अंगूरी पाटल।
अंकित होते प्रतिक्षण मेरे अन्तस्तल पर,
शतशः संस्कारों के शब्द, मन्त्र, अक्षर, स्वर।
स्थित रहता जिस विधि विशेष से मैं जिस क्षण में;
चित्र उतर जाता मेरा वैसा उस क्षण में।
पर मैं तो रहता सन्तुलनरहित, अनियन्त्रित,
उन्मदिष्णु, उन्मूलित, छन्दित लहरान्दोलित।
बनता जाता मेरा सूक्ष्म शरीर अगोचर,
कर्मों और वृत्तियों के अनुरूप निरन्तर।
मानव मैं बन रहा या कि दुर्दान्त निशाचर,
या कि वक्र द्विरसन, वन्य शूकर या नाहर?
ऊपर मैं उठ रहा उत्तुंग गगनमण्डल तक,
या नीचे गिर रहा रसातल के पद-तल तक?
रहा अज्ञ मैं पढ़कर भी थोरो, एमर्सन,
लांग, हक्सले, काण्ट, फ्लिण्ट, मिल, बेकन, न्यूटन।
सूत्र रूप में फ्योरबाख का तत्त्व-निरूपण,
पूर्वमीमांसा, न्याय, सांख्य, वैशेषिक दर्शन।
क्योंकि कर सका स्वयं न मैं अपना अनुशीलन,
अपने रंगो-रेखाचित्रों का विश्लेषण।
(‘विशाल भारत’, अक्तूबर, 1963)