मेरा वेतन ऐसे रानी
जैसे गरम तवे पे पानी ।
एक कसैली कैण्टीन से
थकन उदासी का नाता है,
वेतन के दिन - सा ही निश्चित
पहला बिल उसका आता है,
हर उधार की रीत उम्र - सी
जो पाई है सो लौटानी ।
दफ़्तर से घर तक हैं फैले
कर्ज़दाताओं के गर्म तकाजे,
ओछी फटी हुई चादर में
एक ढकूँ तो दूजी लाजे,
क़र्ज़ा लेकर क़र्ज़ चुकाना
अंगारों से आग भुजानी ।
फ़ीस, ड्रेस, कॉपियाँ, किताबें
आँगन में आवाज़ें अनगिन,
ज़रूरतों से बोझिल उगता
ज़रूरतों में ढल जाता दिन,
अस्पताल के किसी वार्ड - सी
घर में सारी उम्र बितानी ।
ढली दुपहरी सी आई हो
दिन समेट टूटे पिछवाड़े,
छाया-सी बढ़ती उधड़न से
झाँक रहे हैं अँग उघाड़े,
तुझको और दिलासा देना
रिसते घावों कील चुभानी ।
ये अभाव के दिन लावे - से
घुटते तेरे मेरे मन में,
अग्निगीत बनकर फैलेंगे
गाँवों - शहरों में, जन - जन में ।
जिस दिन नया सूर्य जनमेगा
तेरे जूड़े कली लगानी ।