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मेरा शहर-2 / रश्मि भारद्वाज

उम्र के इस पड़ाव पर बार-बार पीछे लौटता है मन
जैसे कि यह तीस जमा दो की उम्र एक स्थगन बिन्दु हो
और आगे बढ़ते जाने के लिए लाज़िमी हो पीछे मुड़ कर देखना
टटोलना अपना वजूद कुछ बीत गए लम्हों में
जो अब तक बिखरे पड़े हैं कुछ रंगहीन काग़ज़ों की सिलवटों में
बहुत कुछ ऐसा जो समा जाता है कुछ इस तरह रक्त मज्जा से
कि लाख चाहें उसे अलग नहीं कर सकते ख़ुद से
गर किया तो हाथ आता है ख़ून से लथपथ अपना ही अंश
कुछ ऐसी ही हो जाती हैं यादें, जो हाथ पकड़ ले जाती हैं बार-बार वहीं
जहाँ जाने के रस्तों पर हम बिठा देते हैं पहरे

आजकल अक्सर काँधें को हौले थपथपाता जाता एक सोया-सा शहर, कुछ सपनीली-सी गलियाँ
और एक लड़की जिसकी आँखों में जाने किन रंगों के रेशे थे
कुछ स्लेटी, कुछ धूसर, और जो भी चटकीला था, वह तुम्हारी आँखों का पानी था
एक उनींदी-सी नदी कहीं दूर, जो जगाए जाने पर रोती थी बेजार
उस शिवालय की वह सीढ़ियाँ जहाँ आसपास रंगीनी की एक स्याह दुनिया बसी थी
जहाँ नहीं आता था सभ्य समाज दिन के उजालों में
शिव भी शापित थे जहाँ
और वहीं रहता एक कवि अपनी ढेर सारी गायों की क़ब्रों
और दर्जनों क़िताबों के साथ, उतना ही शापित, उतना ही उपेक्षित
जैसे कि उस अन्धेरी दुनिया के बाशिन्दे
शहर उसे भी इस्तेमाल करने की कला बख़ूबी जानता था
उसके गीतों को सुनते हुए तुम्हारी आँखों में जो उतर आता था
वहाँ डूब- डूब जाती थी मैं, कभी नहीं उबर पाने के लिए
तुम्हें बांधती थी वह रहस्यमयी दुनिया या कि मेरा साथ,
जीवन के अनेक अनसुलझे रहस्यों की तरह यह भी रह जाएगा अनुत्तरित
लेकिन जानता था वह कवि जो अब कभी नहीं आएगा लौट कर यह बताने
कि सपने देखना गलत नहीं है
बस, नहीं होनी चाहिए आस उसके पूरे होने की
अब जब कि यह तय है कि नहीं पकड़ सकती बीते दिनों का कोई भी सिरा
नहीं बुन सकती उनसे कोई कविता जिसमें दिखे अक्स तुम्हारा
दिल करता है बार-बार, रो लूँ मिल कर गले अपने शहर से
वह तो वहीं है अब भी, भले ही ना हो मेरे इन्तज़ार में
उसकी नज़रों में अब भी मेरे लिए पहचान बाक़ी है
वह ख़ुद कितना भी बदल जाए
उसे पहचानती हूँ मैं भी