अँधेरा घना हो कितना
देख सकता हूँ मैं
उस को
कभी अन्धा लेकिन कर देता है
सूरज
की पाँखें जला देता है
बेहतर है मेरी अँधेरी रात
न चाहे रोशनी दे वह
दीखती रहती है
आकाश में गहरे कहीं मेरे
वह तारिका मेरी
—
5 अप्रैल, 2009